
बिहार विधानसभा चुनाव से पहले, राजनीतिक गलियारों में एक नई बहस छिड़ी हुई है। विपक्ष के नेता, विशेषकर कांग्रेस के राहुल गांधी और राजद के तेजस्वी यादव, चुनाव आयोग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ‘वोट-चोरी’ का आरोप लगा रहे हैं। यह आरोप चुनाव आयोग द्वारा बिहार में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) के संदर्भ में लगाया गया है। इस कदम का उद्देश्य मृत, स्थानांतरित या डुप्लीकेट नामों को हटाना और नए, योग्य मतदाताओं को सूची में शामिल करना है।
संविधान के अनुसार, यह चुनाव आयोग का दायित्व है कि वह मतदाता सूचियों को त्रुटिहीन और विश्वसनीय बनाए। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस प्रक्रिया को वैध ठहराते हुए कहा है कि अगर कोई अवैध प्रक्रिया पाई जाती है, तो वह इसे रद्द कर देगा। फिर भी, राहुल गांधी ने ‘चोरी’ को अपने चुनावी नैरेटिव का आधार बना लिया है।
चोरी का नैरेटिव: एक पुरानी रणनीति?
यह पहली बार नहीं है जब राहुल गांधी ने ‘चोरी’ के नैरेटिव का सहारा लिया है। 2019 के लोकसभा चुनाव में ‘चौकीदार चोर है’ और 2024 में ‘संविधान और आरक्षण चोरी’ का नैरेटिव चलाकर उन्होंने अपनी पार्टी को कुछ हद तक फायदा पहुंचाया। हालांकि, क्या ऐसे नैरेटिव लंबी अवधि में सफल हो सकते हैं?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि फेक नैरेटिव फुलझड़ी की तरह होते हैं—वे क्षणिक चमक तो देते हैं, लेकिन जल्दी बुझ जाते हैं। राहुल को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस चुनाव आयोग पर वे ‘वोट-चोरी’ का आरोप लगा रहे हैं, उसी की चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से उनकी पार्टी हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में सत्ता में आई। इसके अलावा, तमिलनाडु और झारखंड में भी उनकी पार्टी सत्ता में भागीदारी कर रही है। उमर अब्दुल्ला जैसे नेताओं ने भी इस ‘वोट-चोरी’ के नैरेटिव को खारिज किया है, जो यह दर्शाता है कि यह आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति केवल कुछ ही नेताओं तक सीमित है।

आलोचना और आरोप में अंतर
लोकतंत्र में सरकार की आलोचना जरूरी है, लेकिन केवल आरोप, उपहास और अपशब्दों से कुछ हासिल नहीं होता। इससे न केवल जनता में नेताओं की छवि खराब होती है, बल्कि चुनाव में इसका खमियाजा भी भुगतना पड़ता है। कांग्रेस, जो एक दशक से अधिक समय से सत्ता से बाहर है, अपनी अधीरता दिखा रही है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत हमले किए जाएं।
इस तरह की आक्रामक और नकारात्मक रणनीति बताती है कि राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की कमी, संगठनात्मक कमजोरी और वैकल्पिक नीतियों का अभाव है। वे गंभीर मुद्दों को छोड़कर सतही और भावनात्मक मुद्दों को हवा दे रहे हैं।
चुनाव आयोग की तैयारी और भविष्य की चुनौतियाँ
फेक नैरेटिव और डीपफेक की बढ़ती चुनौती को देखते हुए, चुनाव आयोग ने सख्त कदम उठाए हैं। आयोग ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को एआई-डीपफेक और फेक नैरेटिव से निपटने के लिए प्रशिक्षण दिया है और हर जिले में एक ‘सेल’ बनाने का आदेश दिया है, ताकि ऐसी गलत सूचनाओं का तुरंत प्रतिकार किया जा सके।
नेपाल में हाल ही में हुए ‘जेन-जी’ आंदोलन और उससे हुई अप्रत्याशित हिंसा ने यह साबित कर दिया है कि सोशल मीडिया पर फैलने वाले फेक नैरेटिव कितने खतरनाक हो सकते हैं। इसलिए, चुनाव आयोग, सरकार और जनता, सभी को इस मुद्दे पर बेहद सतर्क रहना होगा।

क्या नैरेटिव चुनावी जीत की गारंटी हैं?
इतिहास बताता है कि सिर्फ एक नैरेटिव पर चुनाव जीतना संभव नहीं है। 2004 में ‘इंडिया शाइनिंग’ का नैरेटिव बीजेपी को हार से नहीं बचा सका, जबकि 1971 में इंदिरा गांधी ‘गरीबी हटाओ’ के नारे पर चुनाव जीतीं। इसी तरह, 2024 में ‘चार सौ पार’ का नारा कुछ राज्यों में असफल रहा, जबकि ‘संविधान बचाओ’ का नारा उत्तर प्रदेश में सफल हुआ।
आज, राजनीतिक दल सकारात्मक के बजाय नकारात्मक और आक्रामक नैरेटिव का सहारा ले रहे हैं। यह प्रवृत्ति भारतीय लोकतंत्र के भविष्य पर एक प्रश्नचिह्न लगाती है। यह दिखाता है कि दलों के पास जनता को देने के लिए कोई ठोस योजनाएं नहीं हैं, और वे केवल आरोप-प्रत्यारोप पर निर्भर हैं।

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