
अमेरिका द्वारा एच-1बी वीजा पर फीस बढ़ाने की खबर आने के बाद भारत में कुछ लोगों ने इसे “आपदा में अवसर” के रूप में देखा। उनका तर्क था कि इस कदम से भारतीय आईटी कंपनियां बेंगलुरु, गुरुग्राम और पुणे में ही विस्तार करेंगी। लेकिन यह प्रतिक्रिया केवल कुछ घंटों तक ही चली, जब कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्दारमैया को बेंगलुरु की खराब सड़कों पर अधिकारियों को फटकार लगानी पड़ी। यह घटना इस बात को दर्शाती है कि हम अक्सर बड़े अवसरों को भुनाने के लिए आपदाओं का इंतजार क्यों करते हैं, जबकि हमारी अपनी बुनियादी समस्याएं ही हमें पीछे खींच रही हैं।
सड़कों का हाल: प्रशासन पर सवाल
बेंगलुरु में सड़कों के गड्ढों की समस्या तब सुर्खियों में आई जब एक स्टार्टअप के सीईओ ने खराब सड़कों और ट्रैफिक के कारण अपनी कंपनी को शहर से बाहर ले जाने की बात कही। मुख्यमंत्री सिद्दारमैया ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया दी, इंजीनियरों से पूछा कि उन्हें शर्म क्यों नहीं आती और क्या उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई गड्ढे भरने के लिए की थी। यह घटना केवल बेंगलुरु तक सीमित नहीं है। गुरुग्राम जैसे शहरों में भी सड़कें खराब हैं और ट्रैफिक जाम एक स्थायी समस्या बन चुका है। हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सिंह को भी सड़कों की मरम्मत में लापरवाही न बरतने के निर्देश देने पड़े हैं।
यह सवाल उठता है कि नगर निकाय, पीडब्ल्यूडी, सीपीडब्ल्यूडी और एनएचएआई जैसी एजेंसियां ऐसी टिकाऊ सड़कें क्यों नहीं बना पातीं जो कम से कम अगली बरसात तो झेल सकें? हर साल थोड़ी सी बारिश में ही सड़कों पर गड्ढे दिखना और जलभराव होना एक सामान्य बात हो गई है, जिसे “आफत की बारिश” कहा जाता है। दुनिया के अन्य देशों में भी बारिश होती है, लेकिन वहाँ की सड़कें इतनी जल्दी खराब नहीं होतीं।

विकसित भारत 2047: बुनियादी सुधारों की चुनौती
भारत को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, हमें कुछ बुनियादी कामों को ढंग से करना सीखना होगा। इसमें टिकाऊ सड़कों का निर्माण, ट्रैफिक जाम से मुक्ति, और शहरों को गंदगी व प्रदूषण से मुक्त करना शामिल है। यह विडंबना है कि दुनिया के कई विकासशील देशों ने भी ये काम कर लिए हैं, लेकिन भारत में यह अभी भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।
इसकी जड़ें हमारे भ्रष्ट नेताओं और अक्षम नौकरशाहों की मिलीभगत में हैं। जहाँ भी निर्माण कार्य होता है, वहाँ भ्रष्टाचार भी होता है। भ्रष्टाचार और अक्षमता के कारण नेता तो अक्सर जनता के असंतोष का शिकार होकर सत्ता से बाहर हो जाते हैं, लेकिन नौकरशाहों पर कोई खास असर नहीं पड़ता।
नौकरशाही का संकट और खोया हुआ जज्बा
देश की समस्याओं के लिए केवल नेता ही नहीं, बल्कि नौकरशाह भी जिम्मेदार हैं। खासकर शीर्ष स्तर के नौकरशाह, जिनका चयन संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) जैसी प्रतिष्ठित संस्था द्वारा होता है। जब यूपीएससी का परिणाम आता है, तो सफल उम्मीदवार समाजसेवा और देशसेवा के जज्बे की बात करते हैं। लेकिन सवाल यह है कि सेवा में आने के बाद यह जज्बा कहाँ गायब हो जाता है?

यह सच है कि सभी नौकरशाहों को एक ही तराजू में नहीं तोला जा सकता। कुछ तो वाकई उल्लेखनीय सुधार लाने का प्रयास करते हैं, लेकिन व्यापक स्तर पर देखा जाए तो विकसित होने की आकांक्षा रखने वाले देश की नौकरशाही जैसी होनी चाहिए, वैसी नहीं है। और सबसे बड़ी विडंबना यह है कि प्रशासनिक सुधार किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में प्रमुखता से नहीं दिखते।
यदि भारत को सचमुच विकसित बनना है, तो शासन तंत्र को प्रशासनिक सुधार को अपना प्राथमिक एजेंडा बनाना होगा। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे, तो हम हमेशा अवसरों के लिए आपदा का इंतजार करते ही दिखेंगे। और यह भी याद रखना होगा कि हम आपदा को अवसर में बहुत मुश्किल से बदल पाते हैं, वरना स्वदेशी और आत्मनिर्भरता जैसी बातें बार-बार दोहरानी नहीं पड़तीं।

राजनीति में विरोधी खेमे को खोदने और चिढ़ाने वाली खबरों को अलग महत्व होता है। इसके लिए नारद बाबा अपना कालम लिखेंगे, जिसमें दी जाने वाली जानकारी आपको हंसने हंसाने के साथ साथ थोड़ा सा अलग तरह से सोचने के लिए मजबूर करेगी। 2 दशक से पत्रकारिता में हाथ आजमाने के बाद अब नए तेवर और कलेवर में आ रहे हैं हम भी…..



