
उत्तर प्रदेश की राजनीति और समाज में दशकों से गहरी पैठ बना चुकी जाति आधारित पहचान पर अब एक बड़ा प्रहार हुआ है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के बाद, योगी सरकार ने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए जाति आधारित राजनीतिक रैलियों, सार्वजनिक प्रदर्शनों और पुलिस रिकॉर्ड में जाति के उल्लेख पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया है। यह फैसला न सिर्फ एक प्रशासनिक सुधार है, बल्कि यह एक गहरी सामाजिक और राजनीतिक चुनौती को स्वीकार करने का संकेत भी देता है।
दस-सूत्रीय दिशा-निर्देशों में वाहनों पर जातिसूचक स्टिकर और नामों पर रोक को भी शामिल किया गया है, जिसके उल्लंघन पर केंद्रीय मोटर वाहन अधिनियम, 1988 के तहत चालान किया जाएगा। यह कदम न केवल सड़क पर दिखने वाले जातिगत प्रदर्शन को रोकेगा, बल्कि यह भी संदेश देगा कि एक व्यक्ति की पहचान उसकी योग्यता और नागरिकता से है, न कि उसकी जाति से।
जाति आधारित पहचान का बढ़ता बोलबाला
पिछले कुछ वर्षों में, उत्तर प्रदेश में जाति आधारित संगठनों और उनकी रैलियों में बेतहाशा वृद्धि देखी गई है। हर जाति के अपने अलग-अलग संगठन बनने लगे हैं, जो अक्सर अपनी पहचान को दूसरों से श्रेष्ठ साबित करने के प्रयास में न केवल सामाजिक सद्भाव को प्रभावित करते हैं, बल्कि सार्वजनिक व्यवस्था के लिए भी खतरा पैदा करते हैं। ये संगठन जब सड़कों पर उतरते हैं, तो उनका प्रदर्शन अक्सर उग्र रूप ले लेता है, जिससे राष्ट्रीय एकता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यह चिंताजनक है कि अपनी जाति के प्रति लगाव दर्शाने की होड़ में, अन्य जातियों को नीचा दिखाने की गलत परंपरा भी पनप रही है। यह प्रवृत्ति जातिगत झंडों, पोस्टरों और यहाँ तक कि निजी वाहनों पर जातिसूचक नामों और प्रतीकों को लिखने तक फैल गई है, जिससे समाज में परस्पर भेद और अलगाव बढ़ रहा है।

प्रशासनिक खामियों पर चोट
इस नए शासनादेश का सबसे महत्वपूर्ण पहलू पुलिस और प्रशासनिक रिकॉर्ड से जाति का कॉलम हटाना है। अभी तक, अपराधियों की पहचान अक्सर उनकी जाति के आधार पर होती थी, जिससे कुछ अपराधी अपनी जाति के नाम पर एक पहचान और ताकत बना लेते थे। इसके बाद, वे इस ताकत का इस्तेमाल अपनी जाति के लोगों को लाभ पहुँचाने के लिए करते थे, जिससे यह धारणा भी मजबूत होती थी कि संकट के समय केवल अपनी जाति के लोग या अधिकारी ही काम आते हैं। यह एक खतरनाक भ्रांति है, जो समाज में अन्याय के खिलाफ सामूहिक लड़ाई को कमजोर करती है। सरकार का यह कदम इस धारणा को तोड़ने का प्रयास है, जिससे लोगों को अन्याय के खिलाफ बिना किसी जातिगत भेद के एक साथ खड़ा होने का हौसला मिले।
संविधान की भावना के अनुरूप
संविधान की मंशा यही है कि हर नागरिक अपनी जाति के बजाय, पूरे समाज की ताकत बनकर आगे बढ़े। यह जरूरी है कि हमारा समाज सिर्फ एक जाति तक सीमित न रहे, बल्कि सभी जातियों का विकास हो। हालांकि, यह भी सच है कि जाति आधारित भेदभाव अभी भी समाज में मौजूद है, खासकर डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर। सोशल मीडिया पर जातिगत भेदभाव की शिकायतें अक्सर आती रहती हैं, जिससे प्रशासन को और भी ज्यादा सतर्क रहने की आवश्यकता है। केवल निर्देश जारी कर देना ही पर्याप्त नहीं है। प्रशासन को सोशल मीडिया पर जाति आधारित नफरत फैलाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी होगी।

चुनौतियों और उम्मीदों का संगम
यह समझना होगा कि कुछ मामलों में जाति का उल्लेख जरूरी भी होता है, जैसे कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत दर्ज होने वाले मामलों में। यह छूट इसलिए दी गई है, ताकि इस कानून का मूल उद्देश्य प्रभावित न हो, जो ऐतिहासिक रूप से शोषित समुदायों को न्याय दिलाना है। यह संतुलन साधने का एक महत्वपूर्ण प्रयास है।
सरकार का यह निर्णय सराहनीय है और यदि इसे ईमानदारी से लागू किया जाता है, तो यह उत्तर प्रदेश के सामाजिक ताने-बाने में एक बड़ा बदलाव ला सकता है। हालांकि, यह चुनौती भी कम नहीं है। जाति की पहचान समाज के अंदर इतनी गहरी है कि इसे सिर्फ एक शासनादेश से खत्म करना मुश्किल होगा। असली बदलाव तब आएगा जब लोग खुद अपनी पहचान को जाति से ऊपर रखने लगेंगे। यह न केवल सरकार की जिम्मेदारी है, बल्कि पूरे समाज की भी है कि वह भेदभाव के बिंदुओं को खोज-खोजकर मिटाए और एक ऐसा समाज बनाए जहाँ किसी की जाति उसके विकास में बाधा न बने। यह सिर्फ एक राजनीतिक निर्णय नहीं, बल्कि सामाजिक सुधार की दिशा में एक साहसिक कदम है।

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