
उत्तर प्रदेश में जातीय राजनीति और सामाजिक भेदभाव को खत्म करने की दिशा में एक बड़ा और ऐतिहासिक कदम उठाया गया है। योगी सरकार ने एक नए शासनादेश के जरिए पुलिस रिकॉर्ड्स, सार्वजनिक स्थलों और यहाँ तक कि वाहनों पर भी जाति अंकित करने पर पूरी तरह से रोक लगा दी है। इस फैसले का सीधा असर राज्य की दशकों पुरानी जातीय राजनीति पर पड़ना तय माना जा रहा है। कार्यवाहक मुख्य सचिव दीपक कुमार द्वारा जारी इस शासनादेश ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के हालिया आदेशों को तुरंत प्रभाव से लागू कर दिया है, जिसमें कोर्ट ने पुलिस दस्तावेजों और एफआईआर से जाति का उल्लेख हटाने का निर्देश दिया था।
पुलिस रिकॉर्ड से जाति का कॉलम खत्म
इस नए आदेश के बाद अब पुलिस की लिखापढ़ी में किसी भी आरोपी की जाति का कॉलम नहीं भरा जाएगा। एफआईआर में भी इसे खाली छोड़ दिया जाएगा। केवल एससी-एसटी एक्ट के तहत दर्ज होने वाले मुकदमों को छोड़कर अन्य सभी मामलों में वादी और आरोपी का उपनाम तो लिखा जाएगा, लेकिन उनकी जाति का कोई जिक्र नहीं होगा। गिरफ्तारी मेमो में भी अब आरोपी की जाति नहीं लिखी जाएगी।
पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) राजीव कृष्ण ने बताया कि सीसीटीएनएस (क्राइम एंड क्रिमिनल ट्रैकिंग नेटवर्क एंड सिस्टम) के तहत ऑनलाइन एफआईआर दर्ज करने के प्रोफार्मा से जाति का कॉलम हटाने के लिए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) को पत्र लिखा गया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि पुलिस दस्तावेजों में जहाँ भी जाति दर्ज करने का कॉलम था, वहाँ अब जाति का उल्लेख न करने का निर्देश दिया गया है। एफआईआर में अब माता-पिता दोनों के नामों का उल्लेख करना अनिवार्य होगा, जिससे व्यक्ति की पहचान उसके पारिवारिक पृष्ठभूमि से हो सके, न कि उसकी जाति से।

वाहनों और रैलियों पर भी जाति पर प्रतिबंध
शासनादेश के बाद अब कोई भी राजनीतिक दल या संगठन जातिगत रैलियाँ नहीं कर पाएगा। यह फैसला ऐसे समय में लिया गया है, जब राज्य में पंचायत चुनावों की तैयारियाँ जोरों पर हैं और सभी राजनीतिक दल आगामी विधानसभा चुनावों की रणनीति बनाने में जुटे हैं। जातीय रैलियों पर इस प्रतिबंध से निश्चित रूप से पारंपरिक रूप से जाति आधारित वोट बैंक की राजनीति करने वाले दलों को बड़ा झटका लगेगा।
इसके अलावा, वाहनों पर जातिसूचक शब्दों जैसे ‘जाट’, ‘यादव’, ‘ठाकुर’ आदि को लिखने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है। पुलिस थानों के नोटिस बोर्ड, वाहनों और साइन बोर्ड से भी जातिगत संकेत और नारे हटाए जाएंगे। शासनादेश के अनुसार, इंटरनेट मीडिया पर भी जाति आधारित सामग्री (कंटेंट) नहीं दी जा सकेगी।
संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा
रविवार को जारी शासनादेश में इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है, जिसमें कोर्ट ने कहा था कि पुलिस दस्तावेजों और एफआईआर में आरोपी या गवाह की जाति का उल्लेख करना संवैधानिक मूल्यों के विरुद्ध है। 28 पेज के अपने आदेश में कोर्ट ने राज्य सरकार और पुलिस को इसमें बदलाव करने के निर्देश दिए थे।

प्रदेश सरकार का यह कदम एक सर्वसमावेशी और संवैधानिक मूल्यों के अनुकूल व्यवस्था लागू करने की उसकी घोषित नीति का हिस्सा है। इस फैसले से समाज में समानता और भाईचारे की भावना को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है। हालांकि, यह देखना दिलचस्प होगा कि राज्य के राजनीतिक दल और समाज इस बदलाव को कैसे स्वीकार करते हैं, खासकर तब जब जातीय पहचान दशकों से उत्तर प्रदेश की राजनीति का एक अभिन्न अंग रही है। यह निर्णय न केवल प्रशासनिक सुधारों का हिस्सा है, बल्कि यह एक बड़ा सामाजिक सुधार भी है, जो भविष्य में उत्तर प्रदेश के सामाजिक ताने-बाने को बदल सकता है।

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